दौर-ए-मय है मगर सुरूर नहीं
जल रहे हैं चराग़ नूर नहीं
चोट खाने का शौक़ है दिल को
निगह-ए-नाज़ का क़ुसूर नहीं
लाख आओ न यूँ क़रीब मिरे
तुम किसी वक़्त दिल से दूर नहीं
दूर दुनिया से है मक़ाम तिरा
मेरे ज़ौक़-ए-नज़र से दूर नहीं
मैं नहीं तर्क-ए-मय पे गर क़ादिर
तू तो मजबूर ऐ ग़फ़ूर नहीं
लुत्फ़ क्या दें बहार-ओ-अब्र कि जब
बादा-ए-ज़ीस्त में सुरूर नहीं
बादा-ए-शौक़ दिल से पी ऐ 'अश्क'
शीशा-ओ-जाम कुछ ज़रूर नहीं

ग़ज़ल
दौर-ए-मय है मगर सुरूर नहीं
सय्यद मोहम्मद ज़फ़र अशक संभली