दस्तरस में नहीं हालात तुझे क्या मा'लूम
अब ज़रूरी है मुलाक़ात तुझे क्या मा'लूम
रात के पिछले पहर नींद-शिकन तन्हाई
कैसे करती है सवालात तुझे क्या मा'लूम
तू ब-ज़िद है कि सर-ए-आम परस्तिश हो तिरी
मैं हूँ पाबंद-ए-रिवायात तुझे क्या मा'लूम
जश्न सावन का यूँ बढ़-चढ़ के मनाने वाले
ज़ुल्म क्या ढाती है बरसात तुझे क्या मा'लूम
शाना-ए-वक़्त पे अब ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की तरह
बिखरी रहती है मिरी ज़ात तुझे क्या मा'लूम
सिलसिला-वार दहकते हैं सहर होने तक
सर-ए-मिज़्गाँ मरे जज़्बात तुझे क्या मा'लूम
सादा बातें थीं 'ख़याल' उस की मगर उन में कई
चुप थे रंगीन ख़यालात तुझे क्या मा'लूम

ग़ज़ल
दस्तरस में नहीं हालात तुझे क्या मा'लूम
रफ़ीक़ ख़याल