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दस्तरस में नहीं हालात तुझे क्या मा'लूम | शाही शायरी
dastaras mein nahin haalat tujhe kya malum

ग़ज़ल

दस्तरस में नहीं हालात तुझे क्या मा'लूम

रफ़ीक़ ख़याल

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दस्तरस में नहीं हालात तुझे क्या मा'लूम
अब ज़रूरी है मुलाक़ात तुझे क्या मा'लूम

रात के पिछले पहर नींद-शिकन तन्हाई
कैसे करती है सवालात तुझे क्या मा'लूम

तू ब-ज़िद है कि सर-ए-आम परस्तिश हो तिरी
मैं हूँ पाबंद-ए-रिवायात तुझे क्या मा'लूम

जश्न सावन का यूँ बढ़-चढ़ के मनाने वाले
ज़ुल्म क्या ढाती है बरसात तुझे क्या मा'लूम

शाना-ए-वक़्त पे अब ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की तरह
बिखरी रहती है मिरी ज़ात तुझे क्या मा'लूम

सिलसिला-वार दहकते हैं सहर होने तक
सर-ए-मिज़्गाँ मरे जज़्बात तुझे क्या मा'लूम

सादा बातें थीं 'ख़याल' उस की मगर उन में कई
चुप थे रंगीन ख़यालात तुझे क्या मा'लूम