दस्तार-ए-हुनर बख़्शिश-ए-दरबार नहीं है
सद शुक्र कि शानों पे ये सर बार नहीं है
अब तो ये मकाँ क़त्ल-गहें बनने लगे हैं
अच्छा है वो जिस का कोई घर-बार नहीं है
तहरीस-ओ-सज़ा से नहीं बदलेंगे ये बयाँ हम
इक बार नहीं जब है तो हर बार नहीं है
हर एक पे खुल जाए बिला फ़र्क़ मरातिब
ऐसा हो तो दहलीज़ पे दरबार नहीं है
आ जाए तवाज़ुन में ये माहौल की मीज़ान
इंसाफ़ के पलड़े में मगर बार नहीं है
ज़ुल्मत से निकल आएँ चमकते हुए रस्ते
पर मशअ'ल-ए-एहसास शरर-बार नहीं है
हाथ आएगा क्या साहिल-ए-लब से हमें 'अंजुम'
जब दिल का समुंदर ही गुहर-बार नहीं है
ग़ज़ल
दस्तार-ए-हुनर बख़्शिश-ए-दरबार नहीं है
अंजुम ख़लीक़