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दश्त में है एक नक़्श-ए-रहगुज़र सब से अलग | शाही शायरी
dasht mein hai ek naqsh-e-rahguzar sab se alag

ग़ज़ल

दश्त में है एक नक़्श-ए-रहगुज़र सब से अलग

सरमद सहबाई

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दश्त में है एक नक़्श-ए-रहगुज़र सब से अलग
हम में है शायद कोई महव-ए-सफ़र सब से अलग

चलते चलते वो भी आख़िर भीड़ में गुम हो गया
वो जो हर सूरत में आता था नज़र सब से अलग

सब की अपनी मंज़िलें थीं सब के अपने रास्ते
एक आवारा फिरे हम दर-ब-दर सब से अलग

है रह-ओ-रस्म-ए-ज़माना पर्दा-ए-बेगानगी
दरमियाँ रहता हूँ मैं सब के मगर सब से अलग

दे के आदत रंज की होता है मुझ पर मेहरबाँ
उस सितमगर ने ये सीखा है हुनर सब से अलग

शहर-ए-कसरत में अजब इक रौज़न-ए-ख़ल्वत खुला
उस ने जो देखा मुझे इक लम्हा भर सब से अलग

हर कोई शामिल हुआ 'सरमद' जुलूस-ए-आम में
मुँह उठाए चल दिया है तू किधर सब से अलग