दश्त-ए-वहशत को फ़क़त क़ैस ही भाया हुआ है
हम ने भी इश्क़ का आज़ार उठाया हुआ है
सर-कशी मौज-ए-हवा की, ये कहाँ समझेगी
किस मशक़्क़त से दिया हम ने जलाया हुआ है
कैसे गुलफ़ाम कहूँ, कैसे सितारा समझूँ
वो बदन और ही मिट्टी का बनाया हुआ है
मौज-ए-ख़ुश्बू की तरह हाथ न आने वाले
हम ने इक साथ बहुत वक़्त बिताया हुआ है
आप इसे कासा-ए-तश्हीर समझ बैठे हैं
हम ने इक उम्र से ये ज़ख़्म छुपाया हुआ है
काश वो चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी कभी जान सके
हम को किस ख़्वाब की वहशत ने जगाया हुआ है
ग़ज़ल
दश्त-ए-वहशत को फ़क़त क़ैस ही भाया हुआ है
ख़ालिद मोईन