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दश्त-ए-वहशत को फ़क़त क़ैस ही भाया हुआ है | शाही शायरी
dasht-e-wahshat ko faqat qais hi bhaya hua hai

ग़ज़ल

दश्त-ए-वहशत को फ़क़त क़ैस ही भाया हुआ है

ख़ालिद मोईन

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दश्त-ए-वहशत को फ़क़त क़ैस ही भाया हुआ है
हम ने भी इश्क़ का आज़ार उठाया हुआ है

सर-कशी मौज-ए-हवा की, ये कहाँ समझेगी
किस मशक़्क़त से दिया हम ने जलाया हुआ है

कैसे गुलफ़ाम कहूँ, कैसे सितारा समझूँ
वो बदन और ही मिट्टी का बनाया हुआ है

मौज-ए-ख़ुश्बू की तरह हाथ न आने वाले
हम ने इक साथ बहुत वक़्त बिताया हुआ है

आप इसे कासा-ए-तश्हीर समझ बैठे हैं
हम ने इक उम्र से ये ज़ख़्म छुपाया हुआ है

काश वो चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी कभी जान सके
हम को किस ख़्वाब की वहशत ने जगाया हुआ है