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दश्त-ए-हैरत में सबील-ए-तिश्नगी बन जाइए | शाही शायरी
dasht-e-hairat mein sabil-e-tishnagi ban jaiye

ग़ज़ल

दश्त-ए-हैरत में सबील-ए-तिश्नगी बन जाइए

अब्बास ताबिश

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दश्त-ए-हैरत में सबील-ए-तिश्नगी बन जाइए
जो कभी पूरी न हो ऐसी कमी बन जाइए

रात-भर रहिए मिरे हमराह नींदों की तरह
दिन चढ़े तो लज़्ज़त-ए-आवारगी बन जाइए

पहले तो मुझ को अता कीजे वही चेहरा मिरा
वो नहीं तो फिर मिरी पहचान ही बन जाइए

ताइर-ए-ख़स्ता की सूरत आप को देखा करूँ
शाख़-ए-सिद्रा से उतरती रौशनी बन जाइए

बैठे रहने से तो लौ देते नहीं ये जिस्म-ओ-जाँ
जुगनुओं की चाल चलिए रौशनी बन जाइए