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दश्त-ए-बे-सम्त में रुकना भी सफ़र ऐसा था | शाही शायरी
dasht-e-be-samt mein rukna bhi safar aisa tha

ग़ज़ल

दश्त-ए-बे-सम्त में रुकना भी सफ़र ऐसा था

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

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दश्त-ए-बे-सम्त में रुकना भी सफ़र ऐसा था
ज़िंदगी भागते गुज़री मुझे डर ऐसा था

साँप लिपटे हुए शाख़ों से समर ज़हर-भरे
जिस के साए में लगी आँख शजर ऐसा था

रात भर आग बरसती है हवा जलती है
सोचता हूँ मिरे ख़्वाबों का नगर ऐसा था

अक्स-ए-उम्मीद भी मिलता न था सहराओं में
आँख तरसी थी सराबों को सफ़र ऐसा था

ढूँढता हूँ उसे नींदों से तही रातों में
हाए वो शख़्स कि जो ख़्वाब-ए-सहर ऐसा था

अब कि लौटा हूँ 'बुख़ारी' तो हूँ बेगाना सा
मेरा इस शहर से जाना तो ख़बर ऐसा था