दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
मैं फ़क़त ख़ुश्बू से उस की ताज़ा-दम सा हो गया
उस के होने से हुआ पैदा ख़याल-ए-जाँ-फ़ज़ा
जैसे इक मुर्दा ज़मीं में बाग़ पैदा हो गया
फिर हवा-ए-इश्क़ से आशुफ़्तगी ख़ूबाँ में है
इन दिनों में हुस्न भी आज़ार जैसा हो गया
है कहीं महसूर शायद वो हक़ीक़त अहद की
जिस का रस्ता देखते इतना ज़माना हो गया
ग़म रहा है हाल कहना दिल का उस बुत से 'मुनीर'
जिस के ग़म में अपने दिल का हाल ऐसा हो गया
ग़ज़ल
दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
मुनीर नियाज़ी