दश्त-दर-दश्त चमकता रहा दरिया कैसा
तुझ को धोका हुआ ऐ दीदा-ए-बीना कैसा
जगमगाते हुए शहरों को भला क्या मा'लूम
चहचहाता है दरख़्तों पे सवेरा कैसा
दोस्तो छाँव घनी देख के ठहरा न करो
भागते अब्र के टुकड़े का भरोसा कैसा
कर्बला घेर के बैठी हैं यज़ीदी फ़ौजें
बिल-मुक़ाबिल है हुसैन आज अकेला कैसा
रात जब दस्तकें दरवाज़े पे देती है 'मुनीर'
काँपने लगता है दिल ख़ौफ़ से मेरा कैसा
ग़ज़ल
दश्त-दर-दश्त चमकता रहा दरिया कैसा
मुनीर सैफ़ी