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दश्ना-ए-दर्द हर इक साँस में ठहरा होगा | शाही शायरी
dashna-e-dard har ek sans mein Thahra hoga

ग़ज़ल

दश्ना-ए-दर्द हर इक साँस में ठहरा होगा

मुसव्विर सब्ज़वारी

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दश्ना-ए-दर्द हर इक साँस में ठहरा होगा
दिल समुंदर है तो फिर घाव भी गहरा होगा

तेरी क़ुर्बत में मिरी साँस घुटी जाती है
मैं ने सोचा था तिरा जिस्म भी सहरा होगा

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाएगी जिस रात मिरे
रंग-ए-पैराहन-ए-शब और भी गहरा होगा

चल पड़े हैं अभी जिस पर ये सफ़ीरान-ए-बहार
किसी बजती हुई ज़ंजीर का लहरा होगा

ख़ुश्क पत्तों पे चले जैसे कोई शाम-ए-ख़िज़ाँ
अब तिरी याद का यूँ जिस्म पे पहरा होगा

क्या ख़बर थी ये गिराँ-गोशी का बाइ'स होगी
शहर का शहर सदा पर मिरी बहरा होगा

हिज्र की आग में बढ़ती है 'मुसव्विर' तब-ओ-ताब
ज़हर-ए-तन्हाई से रंग और सुनहरा होगा