दरिया में डूब जावे कि या चाह में पड़े
ऐ इश्क़ पर न कोई तिरी राह में पड़े
मत पूछ जौर-ए-ग़म से दिल-ए-ना-तवाँ का हाल
बिजली तो देखी होगी कभी काह में पड़े
इक दम भी देख सकता नहीं हम को उस के पास
ख़ाक उस फ़लक के दीदा-ए-बद-ख़्वाह में पड़े
जो दोस्ती के नाम से रखता हो दुश्मनी
दीवाना हो जो उस की कोई चाह में पड़े
आ जा कहीं शिताब कि मानिंद-ए-नक़्श-ए-पा
तकते हैं राह तेरी सर-ए-राह में पड़े
जल्वे दो-चंद होवें शब-ए-माह के अभी
उस माह-रू का अक्स अगर माह में पड़े
सुलगे है नीम-सोख़्ता जैसे धुएँ के साथ
जलते हैं यूँ हम अपनी 'हसन' आह में पड़े
ग़ज़ल
दरिया में डूब जावे कि या चाह में पड़े
मीर हसन