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दरिया कभी इक हाल में बहता न रहेगा | शाही शायरी
dariya kabhi ek haal mein bahta na rahega

ग़ज़ल

दरिया कभी इक हाल में बहता न रहेगा

शहज़ाद अहमद

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दरिया कभी इक हाल में बहता न रहेगा
रह जाऊँगा मैं और कोई मुझ सा न रहेगा

आसेब नज़र आते हैं दिन को भी यहाँ पर
इस शहर में अब कोई अकेला न रहेगा

अच्छा है न देखेंगे न महसूस करेंगे
आँखें न रहेंगी तो तमाशा न रहेगा

वो ख़ाक उड़ेगी कि न देखी न सुनी हो
दीवाना तो क्या चीज़ है सहरा न रहेगा

ये अंजुमन-आराई है इक रात की मेहमान
ता-सुब्ह कोई देखने वाला न रहेगा

तू कुछ भी हो कब तक तुझे हम याद करेंगे
ता-हश्र तो ये दिल भी धड़कता न रहेगा

क्या क्या नज़र आता था कि मौजूद नहीं है
ये सोच के रोता हूँ कि क्या क्या न रहेगा

आख़िर मिरे सीने के भी नासूर भरेंगे
ये बाग़ सदा रंग दिखाता न रहेगा

हूँ ज़र्रा-ए-नाचीज़ मुझे कल की नहीं फ़िक्र
मशहूर जो हैं नाम उन्ही का न रहेगा

'शहज़ाद' बहुत ख़्वार किया हम-सुख़नी ने
कुछ दिन दर-ओ-दीवार से याराना रहेगा