दर्द की धूप से चेहरे को निखर जाना था
आइना देखने वाले तुझे मर जाना था
राह में ऐसे नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा भी आए
मैं ने दानिस्ता जिन्हें गर्द-ए-सफ़र जाना था
वहम-ओ-इदराक के हर मोड़ पे सोचा मैं ने
तू कहाँ है मिरे हमराह अगर जाना था
आगही ज़ख़्म-ए-नज़ारा न बनी थी जब तक
मैं ने हर शख़्स को महबूब-ए-नज़र जाना था
क़ुर्बतें रेत की दीवार हैं गिर सकती हैं
मुझ को ख़ुद अपने ही साए में ठहर जाना था
तू कि वो तेज़ हवा जिस की तमन्ना बे-सूद
मैं कि वो ख़ाक जिसे ख़ुद ही बिखर जाना था
आँख वीरान सही फिर भी अँधेरों को 'नसीर'
रौशनी बन के मिरे दिल में उतर जाना था
ग़ज़ल
दर्द की धूप से चेहरे को निखर जाना था
नसीर तुराबी