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दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो | शाही शायरी
dard ki daulat-e-nayab ko ruswa na karo

ग़ज़ल

दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो

अख़्तर होशियारपुरी

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दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो
वो नज़र राज़ है उस राज़ का चर्चा न करो

वुसअ'त-ए-दश्त में दीवाने भटक जाते हैं
दोस्तो आहु-ए-रम-ख़ुर्दा का पीछा न करो

तुम मुक़द्दर का सितारा हो मिरे पास रहो
तुम जबीन-ए-शब-ए-नमनाक पे उभरा न करो

पस-ए-दीवार भी दीवार का आलम होगा
तुम यूँही रौज़न-ए-दीवार से झाँका न करो

घर पलट आने में आफ़ियत-ए-जाँ है यारो
जब हवा तेज़ चले राह में ठहरा न करो

या दिल-ओ-दीदा को तनवीर-ए-मोहब्बत बख़्शो
या दम-ए-सुब्ह ज़माने में उजाला न करो

ये जहान-ए-गुज़राँ हाथ किसे आया है
पीछे मुड़ मुड़ के किसी शख़्स को देखा न करो

भागते लम्हे को कब रोक सका है कोई
वो तो इक साया है साए की तमन्ना न करो

सर सलामत नहीं रहते हैं ज़बाँ कटती है
पत्थरों को कभी भूले से भी सज्दा न करो

प्यास बुझती है कहाँ तपते बयाबानों की
मिरी आँखों मिरी आँखो यूँही बरसा न करो

ज़ीस्त है तेज़-क़दम आगे निकल जाएगी
तुम किसी मोड़ पे रुकने का इरादा न करो

कुछ इधर साए हैं जो बढ़ के लिपट जाते हैं
'अख़्तर' इस राह से हो कर कभी गुज़रा न करो