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दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें | शाही शायरी
dard ka mere yaqin aap karen ya na karen

ग़ज़ल

दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें
अर्ज़ इतनी है कि इस राज़ का चर्चा न करें

लाख ग़ाफ़िल सही पर ऐसे भी हम कोर नहीं
कि चमन देख के ज़िक्र-ए-चमन-आरा न करें

अक़्ल-ओ-दानिश से तो कुछ काम न निकला अपना
कब तक आख़िर दिल-ए-दीवाना का कहना न करें

वो निगाहें अजब अंदाज़ से हैं इश्वा-फ़रोश
ग़म-ए-पिन्हाँ को हमारे कहीं रुस्वा न करें

तेरे आशुफ़्ता-सर ऐसे भी नहीं सौदाई
कि दिल-ओ-दीं के लिए ज़ुल्फ़ का सौदा न करें

मैं ने बेहूदा तवक़्क़ो' की सज़ा पाई है
कुछ ख़याल आप मिरी हसरत-ए-दिल का न करें

मेरे अरमानों को काश इतनी समझ हो 'वहशत'
कि उन आँखों से मुरव्वत का तक़ाज़ा न करें