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दम-ए-ख़्वाब-ए-राहत बुलाया उन्हों ने तो दर्द-ए-निहाँ की कहानी कहूँगा | शाही शायरी
dam-e-KHwab-e-rahat bulaya unhon ne to dard-e-nihan ki kahani kahunga

ग़ज़ल

दम-ए-ख़्वाब-ए-राहत बुलाया उन्हों ने तो दर्द-ए-निहाँ की कहानी कहूँगा

मुज़्तर ख़ैराबादी

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दम-ए-ख़्वाब-ए-राहत बुलाया उन्हों ने तो दर्द-ए-निहाँ की कहानी कहूँगा
मिरा हाल लिखने के क़ाबिल नहीं है अगर मिल गए तो ज़बानी कहूँगा

लब-ए-जू-ए-उल्फ़त रमाई है धूनी यहाँ क़िस्सा-ए-सख़्त-जानी कहूँगा
इधर आ इधर रूह-ए-शीरीं इधर आ तिरे कोहकन की कहानी कहूँगा

ख़िज़र तेरे चश्मे का पानी है अच्छा मगर मैं उसे मौज-ए-फ़ानी कहूँगा
मोहब्बत का मारा हुआ दिल जिला दे मैं तब तेरे पानी को पानी कहूँगा

तिरी ज़ात-ए-वाहिद है बेदार मुतलक़ तुझे तो कभी नींद आती नहीं है
तिरी आँख लगने की हसरत में यारब कहाँ तक मैं क़िस्से कहानी कहूँगा

वो इक आइना जिस में मुँह देखते हैं किसी एक का वक़्फ़-ए-सूरत नहीं है
यहीं से नतीजा उठा कर दुई का मैं वहदत को कसरत का बानी कहूँगा

ये हस्ती का शीशा जो तू ने दिया है ज़रा उस पे चाहत की सैक़ल तो कर लूँ
ये हो जाए फिर अपनी हस्ती को मैं भी तिरी ज़ात का नक़्श-ए-सानी कहूँगा

अज़ल ही में तुझ पर नज़र पड़ चुकी है न कर मुझ से इंकार-ए-जल्वा-नुमाई
तजल्ली तिरी गो नई रौशनी है मगर मैं तो इस को पुरानी कहूँगा

मोहब्बत में इंकार-ए-जल्वा-नुमाई ज़रा इस तरीक़े को तू याद रखना
अगर मैं कभी तेरे दर्जे पे पहुँचा तो मैं भी यूँही लन-तरानी कहूँगा

मैं क्या बेवफ़ा हूँ जो महशर में 'मुज़्तर' ख़ुदा से करूँ शिकवा-ए-क़त्ल अपना
ज़माना कहे ख़ून-ए-नाहक़ बहाया अगर मुझ से पूछा तो पानी कहूँगा