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दैर में है वो न का'बे में न बुत-ख़ाने में है | शाही शायरी
dair mein hai wo na kabe mein na but-KHane mein hai

ग़ज़ल

दैर में है वो न का'बे में न बुत-ख़ाने में है

शौकत थानवी

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दैर में है वो न का'बे में न बुत-ख़ाने में है
ढूँढता हूँ जिस को मैं वो मेरे काशाने में है

ये तिरा हुस्न-ए-तसव्वुर तेरे काशाने में है
तू न आबादी में है ग़ाफ़िल न वीराने में है

है बजा-ए-ख़ुद ज़माना बेकसी में मुब्तला
अब मुरव्वत का निशाँ अपने न बेगाने में है

उस की हसरत देखिए उस का कलेजा देखिए
राज़ जिस की ज़िंदगी का उस के मर जाने में है

अस्ल में ऐ शम्अ' तू है मख़ज़न-ए-सोज़-ओ-गुदाज़
तुझ से जो कुछ बच रहा वो सोज़ परवाने में है

मुझ को जन्नत से कोई मतलब न कौसर से ग़रज़
मेरे हिस्से की वही मय है जो पैमाने में है

रौशनी तारों से होती है न शम्ओं' से ज़िया
क्या ज़माने की सियाही मेरे ग़म-ख़ाने में है

मैं नहीं कहता मगर मैं ने सुना है बारहा
जन्नत-उल-फ़िरदौस की इक राह मयख़ाने में है

मैं जो रोता हूँ तो रोता है ज़माना मेरे साथ
ग़म ज़माने-भर का 'शौकत' मेरे अफ़्साने में है