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दबे जो आग तो दिल से धुआँ सा उठता है | शाही शायरी
dabe jo aag to dil se dhuan sa uThta hai

ग़ज़ल

दबे जो आग तो दिल से धुआँ सा उठता है

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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दबे जो आग तो दिल से धुआँ सा उठता है
मकाँ के पर्दे से इक ला-मकाँ सा उठता है

नज़र जो ठहरे कोई दम तिरे सरापे में
तो अंग अंग से इक कारवाँ सा उठता है

लहू का सेल हो या ज़मज़मा हो जो कुछ हो
हमारे दिल से हर इक बे-कराँ सा उठता है

ये तेरी बज़्म की अज़्मत ये उस की वीरानी
कि याँ से जो भी उठे इक जहाँ सा उठता है

हमारी शाम की साअ'त की लज़्ज़त-ए-बे-नाम
कि जुरए जुरए से तख़्त-ए-रवाँ सा उठता है

न पूछ तिश्नगी उस शख़्स की जो बा'द-ए-विसाल
किसी के पहलू से यूँ कामराँ सा उठता है

करिश्मा जोशिश-ए-हसरत का देखिए हर-सू
कि शाख़ शाख़ से इक आशियाँ सा उठता है