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दार की छाँव में गुज़री कभी ज़िंदाँ में कटी | शाही शायरी
dar ki chhanw mein guzri kabhi zindan mein kaTi

ग़ज़ल

दार की छाँव में गुज़री कभी ज़िंदाँ में कटी

वली आलम शाहीन

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दार की छाँव में गुज़री कभी ज़िंदाँ में कटी
उम्र अपनी यूँही तकमील-ए-बहाराँ में कटी

बात उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की चली थी इक रात
फिर तो हर रात मिरी ख़्वाब-ए-परेशाँ में कटी

शाख़-दर-शाख़ जले और नशेमन के चराग़
जब कोई शाख़ नशेमन की गुलिस्ताँ में कटी

नक़्द-ए-जाँ दे के भी चुक पाई न क़ीमत उस की
एक साअ'त जो कभी हल्का-ए-ख़ूबाँ में कटी

फूल आँखों में सजाए हुए आया कोई
ख़ैर-मक़्दम की घड़ी सैर-ए-गुलिस्ताँ में कटी