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दाना-ए-ग़म न महरम-ए-राज़-ए-हयात हम | शाही शायरी
dana-e-gham na mahram-e-raaz-e-hayat hum

ग़ज़ल

दाना-ए-ग़म न महरम-ए-राज़-ए-हयात हम

मुईन अहसन जज़्बी

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दाना-ए-ग़म न महरम-ए-राज़-ए-हयात हम
धड़का रहे हैं फिर भी दिल-ए-काएनात हम

हाँ इक निगाह-ए-लुत्फ़ के हक़दार थे ज़रूर
माना कि थे न क़ाबिल-ए-सद-इल्तिफ़ात हम

बीम-ए-ख़िज़ाँ से किस को मफ़र था मगर नसीम
करते रहे गुलों से निखरने की बात हम

ऐ शम्अ दिलबरी तिरी महफ़िल से बार-हा
ले कर उठे हैं सोज़-ए-ग़म-ए-काएनात हम

ढूँडा किए हैं राह-ए-हवस रह-रवान-ए-शौक़
देखा किए हैं लग़्ज़िश-ए-पा-ए-सबात हम

उन के ग़मों का हाए सहारा न पूछिए
कुछ पा गए हैं अपने ग़मों से नजात हम