छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम
बैठेंगे जुनूँ में तो न बेकार कभी हम
रहते न इजाज़त के तलबगार कभी हम
होते जो तिरे तालिब-ए-दीदार कभी हम
पहनाएगा हम को वो गुल-ए-ज़ख़्म की बध्धी
पहनाएँगे क़ातिल को जो इक हार कभी हम
दीवाना-नवाज़ी है कि सर को दिए पत्थर
छोड़ेंगे न अब दामन-ए-कोहसार कभी हम
वल्लाह बुतों से नहीं करने के मोहब्बत
रक्खेंगे न अब रिश्ता-ए-ज़ुन्नार कभी हम
अन्क़ा हो जहाँ से मिरी जाँ नाम-ए-हुमा भी
पाएँ जो तिरा साया-ए-दीवार कभी हम
फाहे तो रहे दाग़ जुनूँ पर प-ए-जन्नत
क्या डर है जो रखते नहीं दस्तार कभी हम
तज्वीज़ किया कीजिएगा यूँ हैं सज़ाएँ
या रहम के भी होंगे सज़ा-वार कभी हम
फ़ुर्सत नहीं मिलती है ग़ज़ल कहने की ऐ मेहर
पढ़ते हैं तब इस ढंग के अशआर कभी हम
ग़ज़ल
छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम
हातिम अली मेहर