छोड़ा न तुझे ने राम क्या ये भी न हुआ वो भी न हुआ
हम से तो बुत-ए-काफ़िर ब-ख़ुदा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
अफ़सोस अदम से आ के किया क्या हम ने गुलशन-ए-हस्ती में
जूँ शबनम-ओ-गुल रोया न हँसा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
उस आईना-रू के वस्ल में भी मुश्ताक़-ए-बोस-ओ-कनार रहे
ऐ आलम-ए-हैरत तेरे सिवा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
दिल कू-ए-बुताँ में जा बैठा दम ख़ाना-ए-तन को छोड़ गया
हैफ़ आख़िर-ए-कार रफ़ीक़ अपना ये भी न हुआ वो भी न हुआ
या बहर-ए-तवाफ़-ए-काबा गए या मोतकिफ़-ए-बुत-ख़ाना हुए
क्या शैख़ ओ बरहमन हम ने किया ये भी न हुआ वो भी न हुआ
ऐ क़ासिद-ए-अश्क ओ पैक-ए-सबा उस तक न पयाम-ओ-ख़त पहुँचा
तुम क्या करो हाँ क़िस्मत का लिखा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
खेंच उस को न लाया जज़्बा-ए-दिल तासीर न कुछ नाले ही ने की
मैं दोनों का बस शाकी ही रहा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
उस लब का लिया बोसा न कभू हैहात न लिपटा पावों से
दिल तुझ से ब-रंग-ए-पान-ओ-हिना ये भी न हुआ वो भी न हुआ
मजनूँ तो फिरा जंगल जंगल फ़रहाद ने चीरा कोह-ए-दिला
मैं आह रहा बे-दस्त-ओ-पा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
दिन को भी न देखा हम ने उसे शब ख़्वाब में भी यारो न मिला
इस ताला-ए-ख़ुफ़्ता का होवे बुरा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
नज़दीक 'नसीर' अपने आसाँ फ़रमाइश थी गोया ये ग़ज़ल
कुछ उस का भी कहना मुश्किल था ये भी न हुआ वो भी न हुआ
ग़ज़ल
छोड़ा न तुझे ने राम क्या ये भी न हुआ वो भी न हुआ
शाह नसीर