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छीन ले क़ुव्वत बीनाई ख़ुदाया मुझ से | शाही शायरी
chhin le quwwat binai KHudaya mujhse

ग़ज़ल

छीन ले क़ुव्वत बीनाई ख़ुदाया मुझ से

सुल्तान अख़्तर

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छीन ले क़ुव्वत बीनाई ख़ुदाया मुझ से
देखा जाता नहीं अब तेरा तमाशा मुझ से

एक मुद्दत से अज़ा-दार-ए-अलम-दार हूँ मैं
टूटने वाला नहीं प्यास का रिश्ता मुझ से

घटता रहता हूँ मैं वीरान हवेली की तरह
भागता फिरता है हंगामा-ए-दुनिया मुझ से

अब किसी में भी यहाँ ताब-ए-समाअत न रही
कोई सुनता ही नहीं है मिरा क़िस्सा मुझ से

मुझ को हर लम्हा क़नाअत ने सर-अफ़राज़ किया
मुफ़्लिसी वर्ना तिरा बोझ न उठता मुझ से

चैन से कटती है अब ख़ेमा-ए-गुम-नामी में
कोई रिश्ता ही नहीं ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का मुझ से

देखता ही नहीं वो मेरी बुलंदी की तरफ़
यानी शर्मिंदा है अब वक़्त का ज़ीना मुझ से

फ़ाक़ा-मस्ती में भी क़ाएम है मिरी कज-कुलही
और क्या चाहती है अज़्मत-ए-रफ़्ता मुझ से

कब उतारोगे मिरे जिस्म से ग़ुर्बत का लिबास
पूछती है मिरी दीवार-ए-शिकस्ता मुझ से