छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले
बंद कमरों से तिरे दर्द के मारे निकले
शाख़ पर पंखुड़ियाँ हों कि पलक पर आँसू
तेरे दामन की झलक देख के सारे निकले
तू अगर पास नहीं है कहीं मौजूद तो है
तेरे होने से बड़े काम हमारे निकले
तेरे होंटों मेरी आँखों से न बदली दुनिया
फिर वही फूल खिले फिर वही तारे निकले
रह गई लाज मिरी अर्ज़-ए-वफ़ा की 'मुश्ताक़'
ख़ामुशी से तिरी क्या क्या न इशारे निकले
ग़ज़ल
छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले
अहमद मुश्ताक़