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छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले | शाही शायरी
chhaT gaya abr shafaq khul gai tare nikle

ग़ज़ल

छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले

अहमद मुश्ताक़

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छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले
बंद कमरों से तिरे दर्द के मारे निकले

शाख़ पर पंखुड़ियाँ हों कि पलक पर आँसू
तेरे दामन की झलक देख के सारे निकले

तू अगर पास नहीं है कहीं मौजूद तो है
तेरे होने से बड़े काम हमारे निकले

तेरे होंटों मेरी आँखों से न बदली दुनिया
फिर वही फूल खिले फिर वही तारे निकले

रह गई लाज मिरी अर्ज़-ए-वफ़ा की 'मुश्ताक़'
ख़ामुशी से तिरी क्या क्या न इशारे निकले