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छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया | शाही शायरी
chhanw ko takte dhup mein chalte ek zamana bit gaya

ग़ज़ल

छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

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छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया
हसरतों की आग़ोश में पलते एक ज़माना बीत गया

आज भी हैं वो सुलगे सुलगे तेरे लब ओ आरिज़ की तरह
जिन ज़ख़्मों पर पंखा झलते एक ज़माना बीत गया

मैं अब अपना जिस्म नहीं हूँ सिर्फ़ तुम्हारा साया हूँ
मौसम की ये बर्फ़ पिघलते एक ज़माना बीत गया

अब तक अपने हाथ न आया सुरमई छाँव का दामन भी
चाँदी जैसी धूप में जलते एक ज़माना बीत गया

वक़्त मदारी है क्या जाने खेल अपना कब ख़त्म करे
साँसों की इस डोर पे चलते एक ज़माना बीत गया

ज़िंदगी और लम्हों का तआक़ुब जिन का कोई ओर न छोर
सदियों सदियों मोड़ बदलते एक ज़माना बीत गया

अब भी तिरी मेहराब-ए-सुख़न में शमएँ सी रौशन हैं 'फ़ज़ा'
सूरज को ये आग उगलते एक ज़माना बीत गया