EN اردو
चश्म में कब अश्क भर लाते हैं हम | शाही शायरी
chashm mein kab ashk bhar late hain hum

ग़ज़ल

चश्म में कब अश्क भर लाते हैं हम

शाह नसीर

;

चश्म में कब अश्क भर लाते हैं हम
रात दिन मोती ही बरसाते हैं हम

जबकि वो तीर-ए-निगह खाते हैं हम
सहम कर बस सर्द हो जाते हैं हम

जिंस-ए-दिल को छोड़ मत ऐ ज़ुल्फ़-ए-यार
है ये सौदा मुफ़्त ठहराते हैं हम

नासेहा दस्त-ए-जुनूँ से काम है
कब ये चाक-ए-जेब सिलवाते हैं हम

इस क़दर मत कर शरारत शोला-ख़ेज़
तेरी इन बातों से जल जाते हैं हम

कौन कहता है न कीजे इम्तिहाँ
गर अभी कहिए तो मर जाते हैं हम

ख़त बुत-ए-नौ-ख़त लिखे है ग़ैर को
पेच-ओ-ताब इस वास्ते खाते हैं हम

खोलिए क्या आँख मानिंद-ए-हबाब
तुर्फत-उल-एेन आह मिट जाते हैं हम

छेड़ने से ज़ुल्फ़ के उलझो न तुम
पड़ गया है पेच सुलझाते हैं हम

गरचे हैं दरवेश लेकिन ऐ फ़लक
तुझ को ख़ातिर में नहीं लाते हैं हम

नीम नाँ के वास्ते कब जूँ हिलाल
तेरे आगे हाथ फैलाते हैं हम

गुलशन-ए-दुनिया है नैरंगी के साथ
और कुछ उस की रविश पाते हैं हम

कब ब-रंग-ए-बू-ए-गुल बाहर सबा
अपने जामे से निकल जाते हैं हम

जिस क़दर हाँ देखते हैं ओढ़ना
पाँव याँ उतने ही फैलाते हैं हम

क्या करें किस से कहें नाचार हैं
दिल की बे-ताबी से घबराते हैं हम

कोई भी इतना नहीं कहता 'नसीर'
सब्र कर ज़ालिम उसे लाते हैं हम