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चश्म-ए-जुनूँ में हुस्न-ए-सलासिल है बे-क़रार | शाही शायरी
chashm-e-junun mein husn-e-salasil hai be-qarar

ग़ज़ल

चश्म-ए-जुनूँ में हुस्न-ए-सलासिल है बे-क़रार

हसन बख़्त

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चश्म-ए-जुनूँ में हुस्न-ए-सलासिल है बे-क़रार
किस की गली में जश्न-ए-गरेबाँ मनाएँ हम

शायद किसी का हाथ बढ़े बन के मुद्दई'
इल्ज़ाम की तलाश में दामन सजाएँ हम

रौज़न बनेगा दीदा-ए-याक़ूब एक दिन
अपने लिए ख़ुद आप ही ज़िंदाँ बनाएँ हम

छुपने लगी है ज़ीस्त अँधेरों की गोद में
आओ तो फिर चराग़-ए-हवादिस जलाएँ हम

शहर-ए-तरब में मिलते हैं अपने भी नक़्श-ए-पा
आए न गर यक़ीन तो आओ दिखाएँ हम

जल्वे ही डस रहे हैं शुऊर-ए-जमाल को
किस को हदीस-ए-वादी-ए-ऐमन सुनाएँ हम

दश्त-ए-तलब के ख़ार भी दिल में चुभोइए
फिर कैसे लब पे हर्फ़-ए-तक़ाज़ा न लाएँ हम

उर्यां किया सलीब ने हम को भी अपने साथ
सोचा था आसमान-ए-चहारुम पे जाएँ हम

फिर गर्म रेत उड़ के चली बस्तियों की सम्त
महमिल-नशीं को ढूँढ के सहरा में लाएँ हम

ज़हराब बन चुका है ये एहसास-ए-आगही
अब किस को बख़्त दर्द का दरमाँ बनाएँ हम