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चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है | शाही शायरी
charagh-e-tur jalao baDa andhera hai

ग़ज़ल

चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है

साग़र सिद्दीक़ी

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चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
ज़रा नक़ाब उठाओ बड़ा अँधेरा है

अभी तो सुब्ह के माथे का रंग काला है
अभी फ़रेब न खाओ बड़ा अँधेरा है

वो जिन के होते हैं ख़ुर्शीद आस्तीनों में
उन्हें कहीं से बुलाओ बड़ा अँधेरा है

मुझे तुम्हारी निगाहों पे ए'तिमाद नहीं
मिरे क़रीब न आओ बड़ा अँधेरा है

फ़राज़-ए-अर्श से टूटा हुआ कोई तारा
कहीं से ढूँड के लाओ बड़ा अँधेरा है

बसीरतों पे उजालों का ख़ौफ़ तारी है
मुझे यक़ीन दिलाओ बड़ा अँधेरा है

जिसे ज़बान-ए-ख़िरद में शराब कहते हैं
वो रौशनी सी पिलाओ बड़ा अँधेरा है

ब-नाम-ए-ज़ोहरा-जबीनान-ए-ख़ित्ता-ए-फ़िर्दौस
किसी किरन को जगाओ बड़ा अँधेरा है