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चराग़-ए-शौक़ जला कर कहाँ से जाना था | शाही शायरी
charagh-e-shauq jala kar kahan se jaana tha

ग़ज़ल

चराग़-ए-शौक़ जला कर कहाँ से जाना था

ख़ावर एजाज़

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चराग़-ए-शौक़ जला कर कहाँ से जाना था
हमें तो हो के सफ़-ए-दुश्मनाँ से जाना था

ये दिल ये शहर-ए-वफ़ा कब उसे पसंद आया
वो बे-क़रार था उस को यहाँ से जाना था

नज़र में रक्खा नहीं एक भी सितारा तिरा
कि ख़ाक-ज़ाद थे हम आसमाँ से जाना था

किसी बहाने सही ज़िंदगी का क़र्ज़ उतरा
हमें तो वैसे भी इक रोज़ जाँ से जाना था

नदी में रह के चटानों से दरगुज़र करना
ये हम ने फ़ितरत-ए-मौज-ए-रवाँ से जाना था