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चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ बुझा के बैठे हैं | शाही शायरी
charagh-e-hasrat-o-arman bujha ke baiThe hain

ग़ज़ल

चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ बुझा के बैठे हैं

बाक़र मेहदी

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चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ बुझा के बैठे हैं
हर एक तरह से ख़ुद को जला के बैठे हैं

न कोई राहगुज़र है न कोई वीराना
ग़म-ए-हयात में सब कुछ लुटा के बैठे हैं

जुनूँ की हद है कि होश-ओ-ख़िरद की मंज़िल है
ख़बर नहीं है कहाँ आज आ के बैठे हैं

कभी जो दिल ने कहा अब चलो यहाँ से चलें
तो उठ के आलम-ए-वहशत में जा के बैठे हैं

ये किस जगह पे क़दम रुक गए हैं क्या कहिए
कि मंज़िलों के निशाँ तक मिटा के बैठे हैं