EN اردو
चंद घड़ियाँ नहीं गुज़री थीं शनासाई को | शाही शायरी
chand ghaDiyan nahin guzri thin shanasai ko

ग़ज़ल

चंद घड़ियाँ नहीं गुज़री थीं शनासाई को

शहनाज़ मुज़म्मिल

;

चंद घड़ियाँ नहीं गुज़री थीं शनासाई को
शो'ला-अंदाम चले आए पज़ीराई को

कौन जाने वो हसीं था कि तमन्ना मेरी
ढूँड लाई थी कहीं से मिरी रुस्वाई को

अक्स ठहरा था मिरे दीदा-ए-तर में कब से
आईना ढूँड न पाया रुख़-ए-ज़ेबाई को

टूट कर रेज़ा हुए जाते हैं सब ख़्वाब मिरे
कह दो गिर्या न करे चश्म-ए-तमाशाई को

बाद-ओ-बाराँ भी नहीं बाम नहीं दर भी नहीं
कोई छीनो न मिरे गोशा-ए-तन्हाई को

अपने एहसास पे खींचो न लकीरें 'शहनाज़'
तोड़ भी डालो बुत-ए-रहज़न-ए-बीनाई को