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चनारें वादियों में मुश्तइ'ल हैं | शाही शायरी
chanaren wadiyon mein mushtail hain

ग़ज़ल

चनारें वादियों में मुश्तइ'ल हैं

क़य्यूम नज़र

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चनारें वादियों में मुश्तइ'ल हैं
दरेग़ा सर्व अभी तक पा-ब-गिल हैं

उठे हैं लाला-ए-ख़ूनीं-कफ़न फिर
यही शो'ले जहान-ए-मुस्तक़िल हैं

अगर दो-गाम पर मंज़िल है फिर क्यूँ
चटानें ज़िंदगी की मुन्फ़इल हैं

गुलों पर बे-दिली का रंग क्यूँ है
अनादिल सहन-ए-गुलशन में ख़जिल हैं

रफ़ू हो जाएँगे चाक-ए-बहाराँ
ख़िज़ाँ के घाव देखो मुंदमिल हैं

खनकते ही रहे शीशे तो किस काम
लबों तक जाम जा पहुँचें तो दिल हैं

गए मंज़िल-ब-मंज़िल दार तक हम
मराहिल इश्क़ के कब जाँ-गुसिल हैं

मिले हैं बा'द मुद्दत के तो जाना
बहुत अपने किए पर मुन्फ़इल हैं

ठिकाना क्या है ऐसे दोस्तों का
मुक़ाबिल हैं न मेरे मुत्तसिल हैं