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चमेली घास पर बिखरी पड़ी है | शाही शायरी
chameli ghas par bikhri paDi hai

ग़ज़ल

चमेली घास पर बिखरी पड़ी है

शाह नवाज़ ज़ैदी

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चमेली घास पर बिखरी पड़ी है
हवा ये बाग़ में कैसी चली है

लकीरों से बने इक आईने में
किसी की शक्ल उलझी रह गई है

मिरी खिड़की से चिड़ियाँ उड़ गई हैं
मुंडेरों की मरम्मत जब से की है

इलाही ख़ैर हो ये कौन आया
बहुत बे-वक़्त घंटी बज रही है

निकल आए अचानक घास में फूल
सितारों ने उन्हें आवाज़ दी है

ख़तीब-ए-शहर ने दीवार कैसी
दिलों के आँगनों में खींच दी है

फ़क़त तारीख़ को मज़हब समझ कर
अभी तक हम ने कितनी भूल की है

ये सिक्कों की तमन्ना का समर है
मिरे बालों में चाँदी आ गई है

उसी आलूदा पानी में हमारी
तुम्हारी उम्र बहती जा रही है