चमन में ख़ार ही क्या गुल भी दिल-फ़िगार मिले
फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-रंगीनी-ए-बहार मिले
मज़ा तो जब है कि वो आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-जमाल
गले लिपट के सर-ए-शाम-ए-इंतिज़ार मिले
निगाह-ए-यास से मुँह तक रहा हूँ इक इक का
कोई तो बज़्म-ए-रक़ीबाँ में ग़म-गुसार मिले
जिन्हों ने अपने लहू से चमन को सींचा था
उन्हीं के जैब-ओ-गरेबान तार तार मिले
मैं उन के वा'दों का यूँ भी यक़ीन करता हूँ
मिले मिले न मिले लुत्फ़-ए-इंतिज़ार मिले
क़फ़स के बा'द चमन में ये देखना है मुझे
ख़िज़ाँ मिले कि वहाँ मौसम-ए-बहार मिले
वही तो फ़िक्र-ए-सुख़न आज-कल करे 'जाफ़र'
जिसे हयात का माहौल ख़ुश-गवार मिले

ग़ज़ल
चमन में ख़ार ही क्या गुल भी दिल-फ़िगार मिले
जाफ़र अब्बास सफ़वी