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चमन में दहर के हर गुल है कान की सूरत | शाही शायरी
chaman mein dahr ke har gul hai kan ki surat

ग़ज़ल

चमन में दहर के हर गुल है कान की सूरत

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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चमन में दहर के हर गुल है कान की सूरत
हर एक ग़ुंचा है उस में ज़बान की सूरत

नहीं है शिकवा अगर वो नज़र नहीं आता
किसू ने देखी नहीं अपनी जान की सूरत

कहें तो सब हैं जहाँ को रबात-ए-कोहना वले
हमेशा है गी नई इस मकान की सूरत

जो देखता है सो पहचानता नहीं, ऐसी
बदल गई है दिल-ए-ना-तवान की सूरत

जो निकली बैज़े से बुलबुल तो हुई असीर-ए-क़फ़स
न देखी खोल के आँख आशियान की सूरत

अगर हज़ार मुसव्विर ख़याल दिल में करें
कभू न खींच सकें उस की आन की सूरत

फ़लक के ख़्वान उपर उस की तंग-चश्मी से
कभू नज़र न पड़ी मेहमान की सूरत

घड़ी घड़ी में बदलता है रंग ऐ 'हातिम'
हमेशा बू-क़लमूँ है जहान की सूरत