चमन में बर्क़ कभी आशियाँ से दूर नहीं
ज़मीं पे हम हैं मगर आसमाँ से दूर नहीं
जगा सको तो जगाओ कि नाख़ुदा देखे
तवाफ़-ए-मौज-ए-बला बादबाँ से दूर नहीं
ये आलम-ए-बशरीयत बिखरने वाला है
कोई मकान भी अब ला-मकाँ से दूर नहीं
क़रीब आ न सका मैं तिरे मगर ख़ुश हूँ
कि मेरा ज़िक्र तिरी दास्ताँ से दूर नहीं
ज़रा सी और महारत हो तीर-ज़न को अता
निशाना अब मिरे दिल के निशाँ से दूर नहीं
ये है दवाम की मंज़िल कि है फ़ना का खंडर
ये राज़ आज मिरे रख़्श-ए-जाँ से दूर नहीं
मैं अपने दिल का फ़साना लिखूँ तो क्यूँ न लिखूँ
कि क़िस्सा-गोई में मैं 'मोपसां' से दूर नहीं
न कर ऐ तिश्ना मुदारात में तकल्लुफ़ कुछ
कि घर का हाल तिरे मेहमाँ से दूर नहीं
ग़ज़ल
चमन में बर्क़ कभी आशियाँ से दूर नहीं
तिश्ना बरेलवी