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चमन में बर्क़ कभी आशियाँ से दूर नहीं | शाही शायरी
chaman mein barq kabhi aashiyan se dur nahin

ग़ज़ल

चमन में बर्क़ कभी आशियाँ से दूर नहीं

तिश्ना बरेलवी

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चमन में बर्क़ कभी आशियाँ से दूर नहीं
ज़मीं पे हम हैं मगर आसमाँ से दूर नहीं

जगा सको तो जगाओ कि नाख़ुदा देखे
तवाफ़-ए-मौज-ए-बला बादबाँ से दूर नहीं

ये आलम-ए-बशरीयत बिखरने वाला है
कोई मकान भी अब ला-मकाँ से दूर नहीं

क़रीब आ न सका मैं तिरे मगर ख़ुश हूँ
कि मेरा ज़िक्र तिरी दास्ताँ से दूर नहीं

ज़रा सी और महारत हो तीर-ज़न को अता
निशाना अब मिरे दिल के निशाँ से दूर नहीं

ये है दवाम की मंज़िल कि है फ़ना का खंडर
ये राज़ आज मिरे रख़्श-ए-जाँ से दूर नहीं

मैं अपने दिल का फ़साना लिखूँ तो क्यूँ न लिखूँ
कि क़िस्सा-गोई में मैं 'मोपसां' से दूर नहीं

न कर ऐ तिश्ना मुदारात में तकल्लुफ़ कुछ
कि घर का हाल तिरे मेहमाँ से दूर नहीं