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चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं | शाही शायरी
chale the hum ki sair-e-gulshan-e-ijad karte hain

ग़ज़ल

चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं

हफ़ीज़ जालंधरी

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चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
कि इतने में अजल आ कर पुकारी याद करते हैं

हुजूम-ए-आरज़ू से शहर-ए-दिल आबाद करते हैं
हम अपनी ख़ाक अपने हाथ से बर्बाद करते हैं

तरफ़-दारी न कर इंसाफ़ कर ऐ दावर-ए-महशर
सज़ा दे इन बुतों को वर्ना हम फ़रियाद करते हैं

कभी तो रंग लाएगा कभी तो गुल खिलाएगा
हम अपना ख़ून सर्फ़-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं

हमें तो कार-पर्दाज़ान-ए-क़ुदरत खेल समझे हैं
कभी आबाद करते हैं कभी बर्बाद करते हैं

किसी उम्मीद पर ज़िंदा रहूँ या घुट के मर जाऊँ
वो क्या कहते हैं ऐ क़ासिद वो क्या इरशाद करते हैं

'हफ़ीज़' अपनी तबीअत पर मुझे ख़ुद रश्क आता है
मिरे अशआर पर हज़रत हमेशा साद करते हैं