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चले थे भर के रेत जब सफ़र की जिस्म-ओ-जाँ में हम | शाही शायरी
chale the bhar ke ret jab safar ki jism-o-jaan mein hum

ग़ज़ल

चले थे भर के रेत जब सफ़र की जिस्म-ओ-जाँ में हम

अलीम अफ़सर

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चले थे भर के रेत जब सफ़र की जिस्म-ओ-जाँ में हम
तो साहिलों का अक्स देखते थे बादबाँ में हम

तुयूर थे जो घोंसलों में पैकरों के उड़ गए
अकेले रह गए हैं अपने ख़्वाब के मकाँ में हम

हमारी जुस्तुजू भी अब तो हो गई है गर्द गर्द
कि नक़्श-ए-पा को ढूँडते हैं रह के हर निशाँ में हम

इशारियत थी बे-ज़बाँ था लफ़्ज़ लफ़्ज़ दास्ताँ
सुनाते किस तरह कि गुम थे ख़ुद ही दास्ताँ में हम

बरस रही है आसमाँ से मिस्ल-ए-संग तीरगी
खड़े हैं कब से तेरी आरज़ू के साएबाँ में हम

ज़मीं का दर्द बे-बदन भी हो के अपने दिल में था
तभी तो खिंच के आ गए थे वर्ना आसमाँ में हम

नफ़स नफ़स है ज़िंदगी का कारोबार मुन्तशर
दीवालिया हुए कि जब से आए इस जहाँ में हम