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चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है | शाही शायरी
chala aankhon se jab kashti mein wo mahbub jata hai

ग़ज़ल

चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

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चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है
कभी आँखें भर आती हैं कभी जी डूब जाता है

कहो क्यूँकर न फिर होवेगा दिल रौशन ज़ुलेख़ा का
जहाँ यूसुफ़ सा नूर-ए-दीदा-ए-याक़ूब जाता है

जहाँ के ख़ूब-रू मुझ से चुराएँ क्यूँ न फिर आँखें
जो कोई ख़ुर्शीद को देखे सो वो महजूब जाता है

मिरा आँसू भी क़ासिद की तरह इक दम नहीं रुकता
किसी बेताब का गोया लिए मक्तूब जाता है

'यक़ीं' हरगिज़ किया मत कर इत्ती तारीफ़ लड़कों की
इसी बातों सती मज़मून सा महबूब जाता है