चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से
छाँव मिली न मुझ को दुआ के दरख़्त से
बैठा था मैं हिसार-ए-फ़लक में ज़मीन पर
दुश्मन ने फ़तह खींच ली मेरी शिकस्त से
मैं भी तो था फ़रेफ़्ता ख़ुद अपने-आप पर
शिकवा करूँ मैं क्या दिल-ए-नर्गिस-परस्त से
गिर्या की सल्तनत मुझे देगी शिकस्त क्या
छीनी है मैं ने ज़िंदगी पानी के तख़्त से
हर्फ़-ए-दुआ पे गोश-बर-आवाज़ हो वो क्यूँ
दिल से कलाम होता है मस्तों के मस्त से
हम्द-ओ-सना सुख़न का नहीं दिल का है रियाज़
कैसे सना करूँ मैं दिल-ए-लख़्त-लख़्त से
अहल-ए-ख़िरद इसे न समझ पाएँगे 'फ़क़ीह'
कुछ मसअले हैं मावरा फ़तह ओ शिकस्त से
ग़ज़ल
चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से
अहमद फ़क़ीह