चाप आए कि मुलाक़ात हो आवाज़े से
कब से तन्हाई लगी बैठी है दरवाज़े से
मुझ से तस्वीर तलब करती हैं मेरी आँखें
मैं ने कुछ रंग चुने थे तिरे शीराज़े से
साफ़-गोई से अब आईना भी कतराता है
अब तो पहचानता हूँ ख़ुद को भी अंदाज़े से
मैं तो मिट्टी का बदन ओढ़ के ख़ुद निकला हूँ
क्या डराती हैं हवाएँ मुझे ख़ामियाज़े से
अपने चेहरे पे न औरों के ख़द-ओ-ख़ाल सजा
रूप आता है कहीं उतरे हुए ग़ाज़े से
झूटी अज़्मत की पुजारी है 'मुज़फ़्फ़र' दुनिया
पस्ता-क़द लोग भी गुज़रें बड़े दरवाज़े से
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ग़ज़ल
चाप आए कि मुलाक़ात हो आवाज़े से
मुज़फ़्फ़र वारसी