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चाँदनी में साया-हा-ए-काख़-ओ-कू में घूमिए | शाही शायरी
chandni mein saya-ha-e-kaKH-o-ku mein ghumiye

ग़ज़ल

चाँदनी में साया-हा-ए-काख़-ओ-कू में घूमिए

मजीद अमजद

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चाँदनी में साया-हा-ए-काख़-ओ-कू में घूमिए
फिर किसी को चाहने की आरज़ू में घूमिए

शायद इक भूली तमन्ना मिटते मिटते जी उठे
और भी इस जल्वा-ज़ार-ए-रंग-ओ-बू में घुमिए

रूह के दरबस्ता सन्नाटों को ले कर अपने साथ
हमहमाती महफ़िलों की हाव-हू में घुमिए

क्या ख़बर किस मोड़ पर महजूर यादें आ मिलें
घूमती राहों पे गर्द-ए-आरज़ू में घुमिए

ज़िंदगी की राहतें मिलती नहीं मिलती नहीं
ज़िंदगी का ज़हर पी कर जुस्तुजू में घुमिए

कुंज-ए-दौराँ को नए इक ज़ाविए से देखिए
जिन ख़लाओं में निराले चाँद घूमें घुमिए