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चाँद का पत्थर बाँध के तन से उतरी मंज़र-ए-ख़्वाब में चुप | शाही शायरी
chand ka patthar bandh ke tan se utri manzar-e-KHwab mein chup

ग़ज़ल

चाँद का पत्थर बाँध के तन से उतरी मंज़र-ए-ख़्वाब में चुप

अब्बास ताबिश

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चाँद का पत्थर बाँध के तन से उतरी मंज़र-ए-ख़्वाब में चुप
चिड़ियाँ दूर सिधार गईं और डूब गई तालाब में चुप

लफ़्ज़ों के बटवारे में इस चीख़-भरे गहवारे में
बोल तो हम भी सकते हैं पर शामिल है आदाब में चुप

पहले तो चौपाल में अपना जिस्म चटख़्ता रहता था
चल निकली जब बात सफ़र की फैल गई आ'साब में चुप

अब तो हम यूँ रहते हैं इस हिज्र-भरे वीराने में
जैसे आँख में आँसू गुम हो जैसे हर्फ़ किताब में चुप

अपनी आहट को भी अपने साथ नहीं ले जाते वो
तेरी राह पे चलने वाले रखते हैं अस्बाब में चुप