चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
मस्ती-ए-शौक़ कहाँ बंद-ए-क़बा जानती है
हम तो बदनाम-ए-मोहब्बत थे सो रुस्वा ठहरे
नासेहों को भी मगर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानती है
कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है
हवस इनआ'म समझती है करम को तेरे
और मोहब्बत है कि एहसाँ को सज़ा जानती है
ग़ज़ल
चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
अहमद फ़राज़