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चाहे तू शौक़ से मुझे वहशत-ए-दिल शिकार कर | शाही शायरी
chahe tu shauq se mujhe wahshat-e-dil shikar kar

ग़ज़ल

चाहे तू शौक़ से मुझे वहशत-ए-दिल शिकार कर

अंजुम ख़लीक़

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चाहे तू शौक़ से मुझे वहशत-ए-दिल शिकार कर
अपनों से कट चुका हूँ मैं अपनी अना उभार कर

जिन को कहा न जा सका जिन को सुना नहीं गया
वो भी हैं कुछ हिकायतें उन को भी तू शुमार कर

ख़ुद को अज़िय्यतें न दे मुझ को अज़िय्यतें न दे
ख़ुद पे भी इख़्तियार रख मुझ पे भी ए'तिबार कर

उस के यक़ीन-ए-हुस्न का हुस्न-ए-यक़ीं तो देखिए
आईना देखता है वो अपनी नज़र उतार कर

राहें रफ़ीक़-ए-राह के शौक़ का इम्तिहान हैं
जिस में सफ़र तवील हो रस्ता वो इख़्तियार कर

तेरी ज़मीं नसीब ने तेरे हुनर को सौंप दी
ख़्वाह चमन बना उसे ख़्वाह तू रेगज़ार कर

'अंजुम' अभी हैं राह में शब की कड़ी मसाफ़तें
महर फ़लक पर रह गया दिन का सफ़र गुज़ार कर