EN اردو
बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे | शाही शायरी
buton ke ghar ki taraf kabe ke safar se phire

ग़ज़ल

बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे

मुनीर शिकोहाबादी

;

बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे
हज़ार शुक्र कि जीते ख़ुदा के घर से फिरे

मरीज़-ए-हिज्र का कोई इलाज कर देखे
असर दवा से दवा हुक्म-ए-चारा-गर से फिरे

महीने भर का तो रस्ता है पर दुआ ये है
कि पेशतर वो क़मर दौरा-ए-क़मर से फिरे

निगाह-ए-लुत्फ़ से देखो शबाब आ जाए
शब-ए-गुज़िश्ता अभी गर्दिश-ए-नज़र से फिरे

वो रश्क-ए-महर जो साक़ी हो उम्र बाक़ी हो
ज़ियादा साग़र-ए-मय चर्ख़-ए-फ़ित्ना-गर से फिरे

निगाह फेरने में लुत्फ़ क्या है रहने दो
ये तीर किस लिए उल्टा मिरे जिगर से फिरे

कहेंगे बअ'द-ए-फ़ना हम से दोस्तान-ए-अदम
भरे-पुरे कि तही-दस्त इस सफ़र से फिरे

न माँगें बोसा-ए-रुख़्सार छातियाँ न छुएँ
तबीअत अपनी जो ऐ बुत गुल-ओ-समर से फिरे

फ़लक ने कूचा-ए-मक़्सद की बंद की राहें
भला बताओ कि क़िस्मत मिरी किधर से फिरे

दिखाए मौज-ज़नी बहर-ए-अश्क अगर अपना
हर आसिया-ए-फ़लक-आब चश्म-ए-तर से फिरे

'मुनीर' को है वो दौरान-ए-सर मआज़-अल्लाह
कि सुनने वालों का सर ज़िक्र-ए-दर्द-ए-सर से फिरे