बुरी और भली सब गुज़र जाएगी
ये कश्ती यूंहीं पार उतर जाएगी
मिलेगा न गुलचीं को गुल का पता
हर इक पंखुड़ी यूँ बिखर जाएगी
रहेंगे न मल्लाह ये दिन सदा
कोई दिन में गंगा उतर जाएगी
इधर एक हम और ज़माना उधर
ये बाज़ी तो सो बिसवे हर जाएगी
बनावट की शेख़ी नहीं रहती शेख़
ये इज़्ज़त तो जाएगी पर जाएगी
न पूरी हुई हैं उमीदें न हों
यूंहीं उम्र सारी गुज़र जाएगी
सुनेंगे न 'हाली' की कब तक सदा
यही एक दिन काम कर जाएगी
ग़ज़ल
बुरी और भली सब गुज़र जाएगी
अल्ताफ़ हुसैन हाली