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बुलबुल को फिर चमन में लगा लाई बू-ए-गुल | शाही शायरी
bulbul ko phir chaman mein laga lai bu-e-gul

ग़ज़ल

बुलबुल को फिर चमन में लगा लाई बू-ए-गुल

हकीम सय्यद मोहम्मद ग़ाज़ीपुरी

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बुलबुल को फिर चमन में लगा लाई बू-ए-गुल
ऐ काश होती गुल-बदनों में भी ख़ू-ए-गुल

दिल दाग़ दाग़ उस में ख़याल-ए-ख़िराम-ए-नाज़
जिस तरह उड़ती फिरती हो गुलशन में बू-ए-गुल

आशिक़ ही जब नहीं तो ख़िज़ाँ है बहार-ए-हुस्न
बुलबुल के साथ साथ गई आबरू-ए-गुल

राज़-ए-मोहब्बत और दिल-ए-ग़ुंचा ता-ब-कै
निकलेगी बू के पर्दे में हर आरज़ू-ए-गुल

लो 'शाद' सैर-ए-गुल से भी नफ़रत हुई उन्हें
समझे मगर कि बू-ए-मोहब्बत है बू-ए-गुल