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बुलंद-ओ-पस्त का हर-दम ख़याल रखना है | शाही शायरी
buland-o-past ka har-dam KHayal rakhna hai

ग़ज़ल

बुलंद-ओ-पस्त का हर-दम ख़याल रखना है

अबुल हसनात हक़्क़ी

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बुलंद-ओ-पस्त का हर-दम ख़याल रखना है
हमेशा हाथ में कार-ए-मुहाल रखना है

वो मुझ से तालिब-ए-बैअ'त हुआ है और मुझे
जुनूँ के हाथ पे दस्त-ए-सवाल रखना है

कोई तो आ के गिनेगा जराहतें दिल की
हरा-भरा हमें ताक़-ए-मलाल रखना है

मिरे चराग़ की लौ से मुसाबक़त कैसी
मुझे उसी पे उरूज-ओ-ज़वाल रखना है

कहीं तो ख़त्म हुआ होगा रात का अफ़्सूँ
वहीं पे उक़्दा-ए-सुब्ह-ए-विसाल रखना है

शिकस्त-ए-बे-हुनरी की सनद नहीं मिलती
गिरफ़्त में अभी किल्क-ए-कमाल रखना है

वो मेहरबान नहीं है तो फिर ख़फ़ा होगा
कोई तो राब्ता उस को बहाल रखना है

बजाए उस के कि हम बे-हिसों में गिन लिए जाएँ
सुख़न के साथ ही हुस्न-ए-मजाल रखना है

नज़र न आए क़लम-रौ में कोई हर्फ़-ए-जुनूँ
तमाम ज़ेर-ओ-ज़बर पाएमाल रखना है