बुलावा कौन सा कोह-ए-निदा में रक्खा है
चराग़ हम ने जो अपना हवा में रक्खा है
वो चाहे बख़्श दे ज़िल्लत कि सरफ़राज़ करे
बस इक यक़ीं है जो हम ने ख़ुदा में रक्खा है
अदम वजूद में भरती है इक रग-ए-मौजूद
अब और इस के सिवा क्या दुआ में रक्खा है
न ख़ुद-शनासी अगर हो तो क्या नशात-ए-इश्क़
रक़म न हो तो क्या हर्फ़-ए-नवा में रक्खा है
सफ़र न हो तो ये लुत्फ़-ए-सफ़र है बे-मा'नी
बदन न हो तो भला क्या क़बा में रक्खा है
जो देखो ग़ौर से कुछ कम नहीं है ये भी 'तूर'
इक इज़्तिरार सुकून-ए-हवा में रक्खा है
ग़ज़ल
बुलावा कौन सा कोह-ए-निदा में रक्खा है
कृष्ण कुमार तूर